मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

साधना की सफलता और सिद्धि प्राप्ति

ऐसा लगता है लोगों ने ईश्वर उपासना, पूजा-पाठ, जप-तप और सांसारिक प्रलोभनों को ही साधना बना लिया है। उनका उद्देश्य किसी प्रकार धन प्राप्त करना होता है। ऐसे लोगों को प्रथम तो उपासनाजनितशक्ति ही प्राप्त नहीं होती और किसी कारणवश थोडी बहुत सफलता प्राप्त हो गई तो वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है और आगे के लिए रास्ता बंद हो जाता है। देवी शक्तियां कभी किसी अयोग्य व्यक्ति को ऐसी साम‌र्थ्य प्रदान नहीं कर सकती, जिससे वह दूसरों का अनिष्ट करने लग जाए।

उपासना प्रारंभ करते ही साधक की अंत:प्रक्रियामें तेजी से परिवर्तन प्रारंभ होते हैं। जिस प्रकार आग पर चढे कडाहेमें जब तक आंच नहीं लगती, तब तक उसमें भरे जल में कोई हलचल दिखाई नहीं देती, किंतु जैसे-जैसे आग तेज होती है जल में हलचल, उबलना, खौलना, भाप बनना सब प्रारंभ हो जाता है। उसी प्रकार साधना की आंच से भी विचार मंथन और आत्मिक जगत में हलचल प्रारंभ होती है। उसके बाद शनै:-शनै:ऐसे लक्षण प्रकट होने प्रारंभ हो जाते हैं जिन्हें साधना की सफलता और सिद्धि प्राप्ति के लक्षण कह सकते हैं।
यह उपलब्धि चर्चित नहीं होनी चाहिए, अन्यथा साधक का अहंकार बढेगा और वह पथ भ्रष्ट होगा। किंतु उन्हें अनुभव कर सफलता के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है। दूसरों का वैभव बढाने में आत्मशक्ति का सीधा प्रत्यावर्तन करना अपनी शक्तियों को समाप्त करना है।